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दुर्दांत रहस्मयी खूनी भाषा:रामोसी

Achche Din Aane Wale Hain
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दुर्दांत खूनी भाषा “रामोसी

मायाजाल” में फंसकर जाने कितने शूरवीर,पराकर्मी,योद्धाओं के लिए मौत का जाल बन गयी.आइये इस मध्युगीन भाषा से एक लघु परिचय करते हैं. ” रामोसी” भाषा का अपना अलग शव्दकोश था,और ठगों के गिरोह में हर व्यक्ति का अलग-अलग काम निर्धारित रहता था,अर्थात हर ठग किसी एक कार्य का विशेशज्ञ्य होता था.जब एक ठग किसी दुसरे पक्के ठग से मिलता था,तो एक दुसरे का अभिवादनम“ “औले खान सलाम से करते थे.इन दुर्दांत ठगों का शिकार को मौत के घात उतारने का केवल एक हथियार होता था———--पीला रुमाल ल…..जिसमें एक कोने पर धातु का एक सिक्का बंधा होता था———-इस रुमाल को “रामोसी” में “पान का रुमाल” कहते थे,शिकार अगर धनवान नहीं होता, तो उसे “लट्कनिया कहते थे———–पर शिकार चांहे धनवान हो या कंगाल————-इन ठगों की नज़र में एक सामान महत्त्व रखता था.क्योंकि ठगों का उद्देश्य मात्र शिकार के धन—संपत्ति को लूटना नहीं होता था,बल्कि उनकी दृष्टि में शिकार,ठगों की देवी माँ काली को प्रसन्न करने और कृपा प्राप्त करने के लिए “विशेष भेंट” की वस्तु होता था.


थे, दो प्रकार के होते कहते शिकार पर लगातार नज़र रखने,और खतरों का आभास होने पर साथियों उको सतर्क करने वाले ठगों को “फुरकदेना” कहते था,शिकार की हत्या करने के बाद जिन्हें ज़मीन में गाड़ने के गड्ढे, रामोसी में ““बिलकहते थे,एक गोल आकार में,दुसरे चौकोर—–गड्ढे स्थान विशेष की परिस्थितियों,मिटटी के प्रकार,शिकार की संख्या,और शिकार के डील–डौल के आधार पर बनाए जाते थे.गाय को “रंखुरी‘ कहा जाता,शिकार तय कर लेने पर,फुरकदेना लगातार शिकार पर नज़र रखता था,फिर साथी ठग “व्यापारियों” आदि का भेष बनाकर “सरायों” आदि में शिकार दल के सदस्यों से निकटता बनाकर घुल-मिल जाते,और उनका विश्वास प्राप्त कर लेते—————–अब शिकार और शिकारी एक ही दल के सदस्य बन……….आगे का सफ़र शुरू करते,फुरकदेना दल से निश्चित दुरी बनाए रखता आवश्यक संकेत देता रहता……………………उपयुक्त समय आने पर (विशेषकर संध्या समय या रात्री प्रथम पहर) में दल रात्री विश्राम और भोजन आदि के उद्देश से उपयुक्त स्थान पर दल रुक जाता——— तब ठगों का मुखिया अपने दल के सदस्यों से कहता “जा कटोरी मांज ला” अर्थात “बिल बनाने” के लिए उपयुक्त जगह की तलाश करना,तब दल के सदस्य आस-पास एकांत एवं सुविधाजनक जगह खोजते——–जगह “फरजाना” अर्थात निरापद होनी चाहिए,बस्ती या आवादी से दूर,आम रास्तों से हटकर “कम-से-कम खतरे” वाली खोजी जाती” लगुनिया” अर्थात कबर खोदने वाले,उस स्थान प. र शिकार की संख्या के अनुसार कवरें खोद कर तैयार कर लेते,तब एक ठग दल के मुखिया को खबर देता “बिल तैयार” है,उधर शिकार वाकी ठगों के साथ,खाने-पीने और मौज-मस्ती में डूबा होता,खतरे से बेखबर वोह “विल तैयार” है पर कोई ध्यान न देकर,साथियों की सामान्य आपसी बात समझकर नज़र अंदाज़ कर देता……………………..


.फिर एक दौर बहादुरी के किस्से-कहानियों और यात्रा वृतांत सुनाने का शुरू होता,शिकार भी नए साथियों पर अपनी शान बघारने के किस्से शुरू कर देता,या ठगों के किस्सों को सुन कर रस लेने लगता………….यदि शिकार चालाक और होशमंद लगता,तो ठगों के दल में शामिल “कमसिन लडकियां” कामोत्तेजक “नृत्य” से शिकार को सुर-और-सूरा से मदहोश कर देतीं,शराव के पैमाने और जाम छलकते………..ये दौर रात्री के अंतिम पहर तक चलता,जब शिकार “नीद-के-झोके” लेने लगता,और उसकी आँखें नींद से बंद सी होने लगती,तब अचानक ठगों के दल मुखिया शिकार के पीछे खड़े ठग से कहता का पान का रुमाल ला” ये इशारा होता,रुमाल को सही ढंग रे तैयार कर लेने का,जबकि शिकार समझता की उसकी सेवा के लिए “पान” मंगाया जा रहा है……………………..हर शिकार की अगल-बगल एक-एक ठग बैठा होता,अधिकतर शिकार को चारपाई या तखत पर बैठाया जाता,अगर शिकार खड़े होकर किस्से सुन रहा है,तो अब साथी ठग बहाने से उसे भी बैठा देते,…….शिकार के प्रत्येक सदस्य के पीछे “एक पीले रुमाल वाला माहिर ठग” खड़ा होता—————-


-अचानक मुखिया जोर से चीखता———“तमाखू ला” अर्थात शिकार के गले में रुमाल डालकर दम घोट दो.पीछे खड़े ठगों के हाथ में पीला रुमाल अचानक एक विशेष अंदाज़ में लहराता,और शिकार के गले में पड़कर,उसका पल भर में काम तमाम कर देता,रुमाल से शिकार का गला घोटने की क्रिया को “झिरनी देना” कहा जाता,शिकार को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती,अगल-बगल बैठे ठग,तुरंत मृत शिकार को पकड़कर नीचे गिरा देते…………………………और फिर “पीले रुमाल “वाले ठग,शिकार का काम तमाम कर हर्षध्वनि और आनंदात्रेक में नारा सा लगाते———————–“वाजिद खान” अर्थात शिकार का काम तमाम————फिर लाशों को ठिकाने लगाने वाले दल के ठग,लाशों को “तैयार” विल तक लेजाकर उन्हें गड्ढे में खड़ी स्थिति में शिकार के सर और घुटनों को मिलाकर ठूंस देते————————————अगर ये काम आसानी से नहीं होता तो,शिकार के पैर घुटनों से काट-दिये जाते———————-तब दल के अंतिम सदस्य द्वारा शिकार के पेट में चाक़ू डाल कर घुमा दिया जाता———————कि यदि किसी में थोड़ी—बहुत जान बची न रह जाए—————-संतुष्ट हो जाने पर,गड्ढों को मिटटी से पाटकर एकसा/समतल कर दिया जाता.


फिर ठगों का सबसे भिभत्स रूप प्रकट होता,अर्थात अभागे शिकार की लाशों के ऊपर समतल की गयी जगह पर,ठगों द्वारा तांडव नृत्य प्रारंभ होता,पकवान पकते और जश्न मनाया जाता—————फिर विशेष अभिभूत गुड “जिसे रामोसी में तपोनि का गुड कहते,प्रसाद स्वरुप बांटा जाता. इस रहस्मयी कूट भाषा”रामोसी” के रहस्य को उजागर किया,एक अँगरेज़ अधिकारी “कर्नल स्लीमेन” ने,जिन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगाकर,दुर्दांत ठगों के बीच रहते हुए सीखा,और बाद में “रामोसी भाषा का वृहद शव्दकोश” भी तैयार किया.कर्नल स्लीमैन ने रामोसी सीखकर सैकड़ों ठगों के अपराधों का पर्दाफ़ाश तो किया है,बल्कि इस प्रथा की जड़ें ही उखाड़कर फेंक दीं.कर्नेल स्लीमैन ने इस भाषा के सहारे सैकरों ठगों को जेल पहुंचाया,और अंत में उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाने में भी इसी भाषा रामोसी और कर्नल स्लीमैन का विशेष योगदान रहा.

सोलहवीं शताव्दी से लेकर बीसवीं शताव्दी तक,सदी के सबसे क्रूर,रहस्मयीगों ने अपनी “भाषा रामोसी” के मायाजाल में फंसाकर लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया—— बड़े-से-बड़े योद्धा,राजा,महाराजा,शूरवीर भी जब इनके फंदे में पड़े——-तो उनका पराक्रम भी उन्हें मौत के पंजे से नहीं बचा पाया.

झिरनी देना इन दुर्दांत ठगों का पेशा नहीं,बल्कि एक धार्मिक रस्म थी,हर जाति,धर्म,सम्प्रदाय के ठग——माँ काली के अनन्य भक्त होते थे,और देवी पर अपने शिकार की बलि चडाना इनकी धार्मिक रस्म,——————-जब कोई नया ठग,झिरनी देने का कार्य प्रारंभ करता,तो उसे दक्षिणा में “अभिभूत गुड” प्रसाद स्वरुप खिलाते थे. जब कर्नल स्लीमैन ने अदालती कार्यवाही के दौरान एक पैंतीस वर्षीय ठग से पूछा———अब तक कितने लोगों को झिरनी दे चुके,…………तो उसका जबाब था,कि हम पड़े-लिखे तो हैं नहीं,जो सही हिसाब रखते…………..अब तक कम-से-कम १४०० लोगों के करीव संख्या काली माँ की भेंट तो अवश्य चड़ा दिये होंगे मैंने,एक बात तो है साहब……….काली माँ ज़रूर खुश हुई होंगी,मेरी इतनी भेंट लेकर. जब कर्नल स्लीमैन ने फांसी की सजा पाए एक ठग से पूछा,कि मासूमों कि हत्या करने पर,तुम्हें कभी रहम नहीं आता,……….और अब फांसी का डर तुम्हें लग रहा है या नहीं————-उसने कहा साहव हम भी इंसान है,ऐसा नहीं है कि कभी किसी मासूम शिकार की हत्या करते हुए हमें रहम न आया हो,पर साहव जब तपोनि का गुड मुंह में पहुँच जाता है,तो ऐसी हत्याएं करने में कोई पश्चाताप नहीं होता,तपोनि का गुड अगर आपने चख लिया साहव,तो आप भी हमारी तरह अवश्य हो जायेगे.————और रही बात फांसी की,तो तपोनि का गुड मेरे दांतों में अब भी चिपका होगा——————जव फांसी के बाद दूसरा जन्म लूँगा,तो निश्चित.नूँ ही ठग बगा

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