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ये कैसा महात्मा: भाग 2

Achche Din Aane Wale Hain
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महात्मा गांधी,सचमुच एक चमत्कारिक और चुम्वकीय व्यक्तित्व के व्यक्ति तो थे ही,साथ-साथ राष्ट्रीय नेतृत्व और “तात्कालिक भारत” में अपने पीछे हज़ारों-लाखों स्वम सेवकों /कार्यकर्ताओं और आन्दोलनकारियों का समर्पित जत्था,और अपने विचारों से देश की जनसँख्या के एक बड़े भाग जाग्रत कर अपने साथ और तात्कालिक अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आंदोलित करना एक आश्चर्यजनक उपलव्धि है.

पर इसी के साथ-साथ गांधी जी के कुछ विचार और व्यवहार उनके महात्मा होने में संदेह उत्पन्न कर देता है……..गांधी जी के व्यक्तित्व और उपलव्धियों पर प्रश्नचिन्ह इंगित करता है…………….जिसमें सबसे पहली बात,गांधी जी के जीवन-काल में ही,उनके पुत्र हरिलाल से गांधी जी से कभी मधुर संवंध स्थापित न होना……………………एक महात्मा जो अपने सदगुणों से देश की सम्पूर्ण जनसँख्या में आज़ादी की चेतना जाग्रत करने क्षमता रखता है…………..हज़ारों व्यक्तियों में आत्म विश्वास जगा सकता है………उन्हें अँगरेज़ शासन के विरुद्ध आवाज़ उठाने को आंदोलित कर सकता है……………और उस ब्रिटिश क्राउन की चूलें हिलाने की चेतना रखता है,जिसके राज में कभी सूरज नहीं डूबता था……………….सचमुच एक महात्मा ही ये कार्य कर सकता है…………..कि राजतंत्र को अपने “सत्य,अहिंसा और सत्याग्रह” के बल पर प्रजातंत्र में बदल सकता है.

तो क्यों “गांधी जी का सत्य,अहिंसा और सत्याग्रह” उनके अपने पुत्र को सीधे रास्ते पर लाने में अक्षम रहा……क्यों एक बेटा अपने जीते जी,सदैव अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करते हुए,विश्वमान करता रहा……………आखिर क्या कारण रहे………….कि हरिलाल गांधी समय के साथ-साथ विद्रोह कि गर्त में और अधिक तेजी से जाता रहा…..कभी वापस मुड़ने का उसने प्रयास नहीं किया,ऐसा क्यों ?

एक महात्मा जो एक राज तंत्र को अपने आगे झुकने पर मजबूर कर देता है…….पर वोही महात्मा…………कभी अच्छा पिता न बन सका…..देश का पिता….बापू….खुद अपने अंश,अपने पुत्र को अपने करीव न ला सका……..कमी पुत्र कि या पिता की………..कमी एक पिता की ही रही होगी,जो उसका अपना रक्त,उसकी रगों में दौड़ने से मन कर दे…….

सचमुच हरिलाल भी एक महान सत्याग्रही था,अहिंसा का अनुयायी,सत्य का आग्रह करने वाला….पर उसने इसके लिए तरीका दूसरा चुना…..हरी लाल ने अपने सत्याग्रह से खुद को नुक्सान पहुंचाया………….वो भी जान बुझकर स्वेच्छा से…………..खुद को मिटा डाला.

आखिर क्यों हरिलाल ने इतना कष्ट्साधक रास्ता चुना…………अपने सत्याग्रह का………पहले परिवार से विनती….विलायत पड़ने जाने की….फिर पिता और मान से आग्रह विलायत में उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए……..पिता और परिवार का इनकार और विरोध…….पिता द्वारा पुत्र को विलायत न भेजने की जिद्द…………..आखिर यहाँ अहंकारी कौन……

जब ये महात्मा खुद अपनी शिक्षा विलायत में प्राप्त करता है…..तो पुत्र को ठीक वैसा ही करने से रोकने का कारण……आखिर अपनी संतान के लिए हठ क्यों……कुछ गलत तो नहीं मांग रहा था हरिलाल…………..केवल उसका सपना था,पिता की तरह विलायत जाकर पड़ने,और पिता की तरह एक अच्छा वैरिस्टर बनने का………ऐसे में तो पिता को गर्व होना चाहिए अपनी संतान पर………………..पर एक संकुचित सोच और अहंकार ने एक पुत्र का जीवन कलंकित कर दिया.

और जब हरिलाल अपना सपना पूरा न कर सका……बदले में वात्सल्य की जगह झिड़क….परिवार की उपेक्षा और उलाहना………..ऐसे में क्या मनोविरती हो सकती है एक पुत्र की……………कितना क्षोभ कितना तनाव झेला होगा….उस अभाग्यशाली पुत्र नें…

सो हरिलाल नें वोही किया,जो एक अच्छे व्यक्ति से कामना की जा सकती है………एक विद्रोह,एक अभियान खुद को समाप्त कर लेने का…..हरिलाल नें शराब पीनी शुरू की…..फिर नशा आदत बन गयी…………..जुआ खेलना शुरू किया…………सार्वजनिक वित्रश्ना का प्रदर्शन………सिर्फ एकमात्र उद्देश,की पिता को ये दिखाना,कि जब हरिलाल विलायत में जाकर विगद सकता है…………लो तुम्हारी आँखों के सामने भी ऐसा होगा,यहीं इसी देश में.

विद्रोह कि पराकाष्ठ पर हरिलाल ने “मुस्लिम” धर्म ग्रहण कर लिया,ताकि अपने पिता को दिखा सके,अपनी अंतरात्मा में सुलगती ज्वाला……एक पुत्र था,पिता कि हर असलियत से वाकिफ……पिता कि सोच और कथनी-करनी में अंतर सार्वजनिक करने के लिए हरिलाल “मुसलमान” अब्दुल्ला हो गया…..कि लो जब हर धर्म पिता कि नज़र में बराबर है…….तो मुसलमान बनने में क्या फर्क पड़ता है…पर वो जानता था पिता को बुरा लगेगा…….पर इस विन्दु पर पिता सार्वजनिक रूप से कुछ कह न पायेगा…………हरिलाल पिता कि चत्पताहत देखना चाहता था…शेष आगामी .

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